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Wednesday, March 24, 2010

ग़ालिब

किसी ने खूब कहा है-
मुगलिया सल्तनत ने अगर हिन्दुस्तान को ताजमहल न भी दिया होता, तो भी ग़ालिब का होना किसी नियामत से कम न था.
जी हाँ, मिर्जा ग़ालिब ऐसी ही शख्सियत थे. उर्दू अदब में आज भी उनका कोई सानी नहीं है. वह ग़ालिब जिसने बेमिसाल शायरी का अंजुमन गुलजार किया. वह ग़ालिब जिसने मुसीबतों और मातम के माहौल  में रहकर भी मुसलसल बेहतरीन शायरी को जन्म दिया. यही कारण है कि शायरी कि इस शख्सियत को आलातरीन सदाबहार शयर कहा जाय तो गलत न होगा. उन्हें आज अगर अपनी शायरी से किसी मुशायरे में ख़िताब करने का मौका मिलता तो बाअदब उनके सामने शमा का रखना भी एक तरह से आफ़ताब को चिराग दिखने जैसा होता.

Sunday, February 21, 2010

झांकी एक अखबार की

आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी एक अखबार की
कलमों के सिपाही की और खबरों के संसार की,
पक्के बेशरम, हम पक्के बेशरम......

जो ज्यादा सौदा (खबरें) लाता है, कम वेतन वो पाता है,
जो चिकनी-चुपड़ी करता है, वही चीफ बन जाता है,
नेट से चोरी करने वाला अप-टू-डेट कहलाता है,
संपादक भी अपनी खबरें ठेके पर लिखवाता है,
प्रेस कान्फ्रेंस में मिलने वाले गिफ्टों की बहार की,
कलमों के सिपाही की और खबरों के संसार की,
कारीगर हैं हम, कारीगर हैं हम....

न्यूज फेक हो फरक नहीं पर पता नहीं ये लग पाए,
कांट-छांट लो, टीप-टाप लो, खबर एक्सक्लूसिव बन जाए,
खबरों से ज्यादा विजापन पत्रकार लेकर आए
डोंट वरी तब खबर फ्रंट की मिस होती हो...हो जाए,
चाय के प्यालों में डूबी बाईलाइन के बहार की,
कलमों के सिपाही की और खबरों के संसार की,
तनख्वाह अपनी कम, तनख्वाह अपनी कम...

चौथा स्तंभ रोता है, बोझा अपना ढोता है,
इस धंधे में आने वाला खुशियां अपनी खोता है
उल्लू बनकर जागे राते में, देर तलक फिर सोता है,
बीज दुखों के जीवन भर अपने हाथों बोता है,
दुखियारों की, खिसियायों की, मजबूरों की, लाचार की,
कलमों के सिपाही की और खबरों के संसार की,
बुरे फंस गए हम, बुरे फंस गए हम।।

Tuesday, February 2, 2010

बहुत याद आती है

बहुत याद आती है चूल्हे की रोटी
नरम सी, गरम सी, थोड़ी सी मोटी,
रोटी से मक्खन की लौनी टपकना
गरमा-गरम दूध गुड़ से सटकना
चूल्हे की चाय में अदरख महकना
पतीले में आलू की सब्जी खदकना
बहुत याद आता है कच्चा अचार,
जिसमें छिपा था नानी का प्यार.......

कड़ी धूप में ट्यूबबैल पर नहाना,
खेतों से गन्ने चुराकर चबाना,
पुरखों की छतरी पे ऊधम मचाना
कभी दौड़ना, कभी बैठ जाना,
बहुत यादी आती है फटी सी बिछैया
जिसे ओढ़ती थी नौहरे की गइया.....

कमरक की चटनी और सूखी खटाई,
छुपा के रखी खोए वाली मिठाई
शाम को कुएं पर हंसना बतियाना
सज-धज सहेली के झुंडों का जाना
बहुत याद आती है गरमी की छुट्टी
 मगर गांव से हमने कर ली है कुट्टी....

Thursday, January 7, 2010

तुम शक्ति हो


जब भी जीवन के झंझावत में, तुम ख़ुद को खोया पाना

तुम नारी हो, तुम शक्ति हो, ये कभी भूल न जाना।


जब भी आखों के पोरों से, दो बूँद नीर की ढुलकें

तुम नीर भरी दुःख की बदली, ये सोच नीर पी जाना,

जब लगे बीच मझधार में लहरों संग बही मैं जाती हूँ,

साँसों की जब तक आस रहे, तब तक लहरों से टकराना ।।

Wednesday, January 6, 2010

नयी सुबह के गीत गायें

रह  गया बाकी बहुत कुछ, साथ मिलकर पूर्ण कर लें

 नभ  को झुका दें हम धरा पर, धरती को नभ के तुल्य कर लें

छेड़े चलो वो रागिनी हर दिल ख़ुशी से झूम जाए

रात बीती, बात बीती, नयी सुबह के गीत गायें


आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं