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Wednesday, April 24, 2013

मैं हो गया बदनाम नेक काम के लिए



बदली हैं कितनी ख्वाहिशें इंसान के लिए 
आंखें तरस रही हैं शमशान के लिए 

इंसान तो इंसान है, क्या दोष उसे दें
मुश्किल हुए हालात अब भगवान के लिए

कुत्ते को पालते हैं वो औलाद की तरह 
दरवाजे बंद हो गए मेहमान के लिए

पैसे को झाड़ जेब से नौकर लगा लिए
दो पल न फिर भी मिल सके आराम के लिए

जागीर दिल की नाम जिसके कर रहा था मैं
वो लड़ रहा मिट्टी के इक मकान के लिए 

जिनके लिए तरसी तमाम उम्र ये आंखें 
आए थे वो मिलने मगर एक शाम के लिए

इल्जाम सारे उसके मैंने अपने सिर लिए
मैं हो गया बदनाम नेक काम के लिए ....



Tuesday, April 23, 2013

संपूर्ण



क्या यही है तुम्हारा पौरुष
यही है हकीकत
इसी दर्प में जी रहे हो तुम
कि हर रात जीतते हो तुम
हार जाती हूं मैं
फिर सुकून भरी नींद लेते हो तुम
सिसकती हूं मैं
जीतना मैं भी चाहती हूं,
सुकून भरी नींद
मेरी आंखों को भी प्यारी है
पर फर्क है, तुम्हारी जीत और मेरी जीत में
घंटों निहारना चाहती हूं तुम्हें
एक निश्चल बच्चे की तरह
सुनाना चाहती दिन भर की बातें
नहीं चाहिए मुझे जड़ाऊ गहने
बस एक बार, एक बार
प्यार से मुस्कुरा दो मेरी किसी नाराजी पर
आॅफिस से लौटते में
कभी लेते आओ महकता गजरा
फिर कैसी खुमारी से भर उठेगा
तन और मन,
अब तक आधा पूर्ण किया है तुमने मुझे
संपूर्णता की परिधि में तन के साथ मन भी शामिल है
बस एक बार,
एक बार बना दो मुझे भी पूर्ण,
जीत जाने दो मुझे भी..
क्योंकि मेरी जीत बिना तुम्हारी जीत कहां
तुम्हारा अस्तित्व मुझसे ही तो संभव है
क्योंकि सिर्फ पत्नी नहीं हूं तुम्हारी
प्रिया हूं, अर्धांगिनी हूं, रचयिता हूं.....

Monday, April 22, 2013

अब हक की नहीं कर्तव्य की बात हो

हर बार यही होता है...दिल्ली में दरिंदगी होती है...संसद में बहस होती है और सड़कों पर गुस्सा। 2...4...6...10 दिन यही चलता है। और फिर आक्रोश पर पानी की बौछार जोश और जज्बे को ठंडा कर देती है। उधर, संसद मौन हो जाती है और रेप पर रार बरकरार रह जाती है। फिर एक गुड़ियां हवस का शिकार बनती है और फिर वही सबकुछ शुरू हो जाता है। ठीक उसी तरह, जिस तरह एक फिल्म को दूसरी बार देखने जैसा होता है। लेकिन...अब ये बहस थमनी चाहिए। सड़कों पर उबाल और संसद में बवाल करने की बजाय जिम्मेदार बनने का वक्त है। नहीं तो आज गुड़िया है...कल मुनिया...और फिर परसों कविता और बबिता के लिए हम ऐसे ही निर्थक ही सरकार के खिलाफ आग उगलते रहेंगे। ये ऐसा क्राइम नहीं है, जिस पर कानून शिकंजा कस सके। ये एक बीमारी है। इसका इलाज जुर्म से पहले होना चाहिए। लोगों को जागरूक होना चाहिए। क्योंकि ये ऐसा जुर्म जिसमें आरोपी को तो सजा मिलती ही है और मिलनी भी चाहिए लेकिन  इस जुर्म के बाद उस पीड़िता को भी जिंदगी भर एक सजा भुगतनी पड़ती है...वह है बेबस और लाचार भरी जिंदगी। इसलिए अब हक की नहीं कर्तव्य की बात हो। 

कविता जन्म लेगी




आज मन उदास है
शायद कोई कविता जन्म लेगी
टूट गई हर आस है
शायद कोई
कविता जन्म लेगी।
न कोई गिला, न कोई शिकायत
फिर भी दबा-दबा सा अहसास है
शायद कोई कविता जन्म लेगी...
रोये भी नहीं हैं इस कदर कि
चेहरे पर छाई वीरानी हो
हंसे भी नहीं है इस कदर
कि जज्Þबातों को हैरानी हो
फिर क्यों ऐसे ख्यालात हैं
शायद कोई कविता जन्म लेगी...


Monday, April 8, 2013

अल्लाह के नाम पर कमेंट दे बाबा!



आदरणीय 
चिठ्ठाधारकों

दिल में व्यथा तो पिछले चार साल से छुपाए था पर अब कलेजा मुंह को आ रहा है सो ब्लॉग पर आपबीती लिखनी पढ़ रही है। बात सोलह आने सही है। समीरलाल जी के ब्लॉग ‘उड़न तश्तरी’ की कसम खाकर कह रहा हूं जो भी कहंूगा सच के सिवाय कुछ न कहूंगा।

बात सन 2008 की है। मैंने नया-नया ब्लॉग बनाया था। तब ब्लॉगिंग नया-नया शगल थी। चूंकि उन दिनों ब्लॉगिंग के बारे में मुझे कुछ ज्यादा जानकारी नहीं थी इसलिए जो भी मन में आता था, लिख देता था। मेरा सहयोग करती थी मेरी पत्नी। उसे कविताओं का शौक चर्राया था। कविता झेल पाना हर किसी के वश की बात नहीं होती इसलिए वह कविताओं पर किसी को सुनाने के बजाय ब्लॉग पर डालती थी। चूंकि तब चिट्ठाधारकों की संख्या ज्यादा नहीं थी (ऐसा मुझे लगता है, जरूरी नहीं आपका भी ख्याल ऐसा हो), सो ‘एनीहाउ’ मेरा ब्लॉग हिंदी के महान चिट्ठाधारकों की पहुंच के भीतर आ गया था। ब्लॉग जगत के बड़े-बड़े महात्मा मुझ बच्चे पर अपनी कृपा करते थे और  उल्टी-सीधी पोस्ट पर भी मेरे उत्साहवर्धन हेतु बढ़िया कमेंट दे देते थे। क्या दिन थे वो भी....। मैं और मेरा ब्लॉग...साथ में ढेर सारे टिप्पणीदाता। मैं बल्लियों उछलता रहता था पर जनाब कभी टिप्पणियों की कद्र न जानी। समीर लाल जी, नीरज गोस्वामी जी , शोभा जी, रंजू भाटिया जी, बालकिशन जी जैसे ब्लॉगर्स अपने कमेंट के माध्यम से मेरे ब्लॉग की शोभा बढ़ाया करते थे, (यकीन न हो तो मेरी 2008 की पोस्ट पर जाकर देख लीजिए) पर वो कहते हैं ना कि ..सब दिन होत न एक समान.....मैं ब्लॉगिंग से दूर होता चला गया, मेरी पत्नी भी। ठीक उसी क्रम में टिप्पणी दाता भी दूर होते गए। न जाने कैसे ब्लॉग में भी गड़बड़ी आ गई और कमेंट वाला आॅप्शन गायब हो गया। फिर एक दिन....सोचा कि क्यों न ब्लॉग अपडेट किया जाए....पोस्ट लिखना फिर से शुरू किया लेकिन टिप्पणियां शुरू न हुईं। कुछ दिन के इंतजार के बाद एकाध टिप्पणी के दर्शन होते तो मन फूला नहीं समाता था। फिर हमारी रचनाएं ‘नई पुरानी हलचल’ और ‘चर्चा मंच’ पर भी चमकी। मैं जितना खुश था उससे कहीं ज्यादा खुश मेरी बीवी। पहली बार नई पुरानी हलचल में अपनी रचना देख उस बावरी ने तो खुशी में मुझे कई फोन कर डाले........अरे ब्लॉग देखा क्या...अब ब्लॉग अपडेट करते रहना.....। कुछ समय बाद पता चला ब्लॉग जगत की नींव ही कमेंट्स हैं। अगर कमेंट्स न होते तो ब्लॉग जगत का क्या हाल होता....। कहने वाले कहते हैं कि पोस्ट लेखक के मन का आईना होती है, मैं कहता हूं कि कमेंट रीडर के मन का आईना होते हैं। अगर मुझे कमेंट्स पर फिल्म बनाने का जिम्मा सौंपा जाए तो उसकी बानगी कुछ इस तरह होगी----
फिल्म का नाम-
‘चलो कमेंट-कमेंट खेलें’
हीरो का डायलॉग- तुम मुझे कमेंट करो, मैं तुम्हें कमेंट करूंगा। 
हीरोइन-तुमने मुझे जो कमेंट्स किए थे, क्या वो सब झूठ थे....क्या तुम्हें मेरी पोस्ट से वाकई प्यार नहीं...। 
हीरो की मां- देख बेटा, ये कमेंट मैंने अपने होने वाली बहू के लिए लिखा है, उसकी पोस्ट पर इस कमेंट को अपने हाथों से कट-पेस्ट करना।
हीरो का बाप- कितने में खरीदा है ये कमेंट...? मेरे बरसों से इकट्ठे किए गए कमेंट्स पर तेरी इस पोस्ट ने जो चांटा जड़ा है ना, उसकी आवाज तेरी पोस्ट को पॉपुलर नहीं होने देगी। 
हीरो की बहन- भैया पिछली राखी पर तुमने मेरी पोस्ट पर सौ कमेंट्स करने का वादा किया था, इस बार भूल मत जाना। 
गब्बर टाइप विलेन- मेरी पोस्ट पर कमेंट कर दे ठाकुर।
भिखारी- अल्लाह के नाम पर कमेंट दे दे बाबा, तेरे बाल-बच्चों की पोस्ट सौ तक चमके।  

Saturday, April 6, 2013

प्यार क्या है

प्यार क्या है
एक आदत सी है
जब पड़ जाती है एक-दूसरे की
तो मिट जाती है जिस्म की पहचान!

प्यार क्या है
एक इबादत सी है
जब करने लगते हैं एक-दूसरे की
तो बन जाते हैं भगवान!

प्यार क्या है 
एक शिकायत सी है
जब हो जाती है एक दूसरे से
तो दिल का घर बन जाता है मकान

प्यार क्या है
एक कयामत सी है
जब टूटती है दो दिलों पर
तो दे देती है या ले लेती है जान!
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Thursday, April 4, 2013

विश यू वैरी-वैरी हैप्पी गर्मी

गर्मी का सीजन एक बार फिर मुबारक हो। हमें पता है कि गर्मी का नाम सुनते ही आपके नाक-मुंह सिकोड़कर एक्सरसाइज करना शुरू कर देते हैं पर अबकी गर्मी को एंजॉय करके देखिए, बहुत मजा आएगा। वैसे भी इस बार आपको गर्मी के फ्लैश बैक(बचपन के दिन) में ले जाने के लिए कई सेक्टर कमर चुके हैं....। अव्वल तो छोटे-छोटे बच्चे गर्मियों में ज्यादा टीवी न देखें, इसका इंतजाम कर दिया गया है। न होगा सेट टॉप बॉक्स....न चलेगा टीवी। जब टीवी नहीं होगा तो लोग मुहल्ले में चौपाल लगाएंगे, महिलाएं बालकनी में खड़ी होकर बतियाएंगी, बच्चे फिर से चोर-सिपाही, लंगड़े छज्जू खेलेंगे....यानि भाईचारे, बहनचारे और बच्चेचारे की भावना का एकदम सॉलिड इंतजाम। अगर फिर भी आप घर में घुसे रहने की फिलॉसफी को प्राथमिकता देने वाले हैं तो  टोरंट पावर है ना। आपके परफ्यूम और पाउडर से सुसज्जित शरीर पर पावरकट ऐसा पसीना बहाएगी कि आप चाहें या न चाहें घर से बाहर निकल ही आएंगे। रात में घर से न निकल पाना आपकी मजबूरी है लेकिन लंबा-चौड़ा एकदम खली के माफिक दिन काटने के लिए आपको मुहल्ले में तांक-झांक करनी पड़ेगी ही। इसलिए बी हैप्पी दिस समर।