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Friday, August 23, 2013

जो भी निकली, बहुत निकली



जुबां से मैं न कह पाया, वो आंखें पढ़ नहीं पाया
इशारों की भी अपनी इक अलग बेचारगी निकली।।

मेरे बाजू में दम औ' हुनर की दुनिया कायल थी
हुनर से कई गुना होशियार पर आवारगी निकली।।

तसव्वुर में समंदर की रवां मौजों को पी जाती
मैं समझा हौंसला अपना मगर वो तिश्नगी निकली।।

जरा सी बात पे दरिया बहा देता था आंखों से
मेरी मय्यत पे ना रोया ये कैसी बेबसी निकली।।

जिसे सिखला रहा था प्यार के मैं अलिफ, बे, पे, ते
मगर जाना तो वो इमरोज की अमृता निकली।।

दवा तो बेअसर थी और हाकिम भी परेशां थे
मुझे फिर भी बचा लाई मेरी मां की दुआ निकली।।