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Wednesday, August 1, 2012

क्योंकि शहर में नहीं मैं गांव में रहता था.....

जब कहीं जाता था तो घर का दरवाजा खुला छोड़ जाता था


पड़ोस का बच्चा जब कोई शरारत करता था तो हक से उसे डांट कर आगे बढ़ जाता था

लाठी लेकर बूढ़ा जब कोई बूढ़ा चलते में लड़खड़ाता था तो उसे घर तक छोड़ आता था

भूख जब लगती थी, तो किसी भी आँगन में बैठ जाता था

किसी को चाची, किसी को बुआ तो किसी को काका कहता था

क्योंकि शहर में नहीं मैं गांव में रहता था



दीपाली पर अली और रमजान में राम घर आता था

होली पर हुस्ना पर भी हरा रंग चढ़ जाता था

वैसाखी के जोश में ईद के उल्लास में जब जोजफ डूब जाता था

पता न चलता दिन-महीना, जब त्योहारों का मौसम आता था

पटाखों के शोर से, अल्लाह की अजान से, गुरुवाणी की गूंज से, जीजज के बोल से

शीशे में जकड़ी धर्म की सीमाएं टूट जाती थीं

क्योंकि अपार्टमेंट की नहीं ये मेरे गांव की कच्ची दीवारें थीं