क्या यही है तुम्हारा पौरुष
यही है हकीकत
इसी दर्प में जी रहे हो तुम
कि हर रात जीतते हो तुम
हार जाती हूं मैं
फिर सुकून भरी नींद लेते हो तुम
सिसकती हूं मैं
जीतना मैं भी चाहती हूं,
सुकून भरी नींद
मेरी आंखों को भी प्यारी है
पर फर्क है, तुम्हारी जीत और मेरी जीत में
घंटों निहारना चाहती हूं तुम्हें
एक निश्चल बच्चे की तरह
सुनाना चाहती दिन भर की बातें
नहीं चाहिए मुझे जड़ाऊ गहने
बस एक बार, एक बार
प्यार से मुस्कुरा दो मेरी किसी नाराजी पर
आॅफिस से लौटते में
कभी लेते आओ महकता गजरा
फिर कैसी खुमारी से भर उठेगा
तन और मन,
अब तक आधा पूर्ण किया है तुमने मुझे
संपूर्णता की परिधि में तन के साथ मन भी शामिल है
बस एक बार,
एक बार बना दो मुझे भी पूर्ण,
जीत जाने दो मुझे भी..
क्योंकि मेरी जीत बिना तुम्हारी जीत कहां
तुम्हारा अस्तित्व मुझसे ही तो संभव है
क्योंकि सिर्फ पत्नी नहीं हूं तुम्हारी
प्रिया हूं, अर्धांगिनी हूं, रचयिता हूं.....
8 comments:
bhavpooran
बहुत खूब.
बहुत खूब भावपूर्ण अभिव्यक्ति
manav ji, chandni ji, anju ji, aap sabhi ka bahut-bahut dhanyawaad..
manav ji, chandni ji, anju ji, aap sabhi ka bahut-bahut dhanyawaad..
kya baat hai sir..
kya baat hai sir.
kya baat hai sir..
Post a Comment