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Thursday, December 20, 2012

अहसासों का पैबन्द




कल रात उधेड़ा था मैंने
तेरी यादों के लिहाफ पर लगा अहसासों का पैबन्द
एक-एक कर निकले थे जज्बातों के चीथड़े
कुछ गुस्से भरे गूदड़-गादड़ थे
कुछ मुस्कान लपेटी कतरनें...
तेरे जाने की टीस का दर्द भरा टांका
अनजाने में गुथ गया था उस रुई से
जिसमें लपेट रखा था तेरा पहला इजहार-ए-मुहब्बत,
पैबन्द की अधखुली सीमन से झांक रहे थे तेरे वादे,
 कहीं-कहीं मेरी ख्वाहिशों का रेशमी धागा भी था
इसी से सिलने की कोशिश की थी मैंने कई बार
हमारे कुतरे हुए रिश्ते को,
बड़ी मुश्किल से मिली थीं बिना गांठ वाले धागों की रीलें,
तेरी बेरुखी की सुई भी चुभी थी कई बार मेरे अंतस पर
उसी खून से मैंने पैबंद पर दी थीं लाल छींटें
...अब पैचवर्क करते-करते दुख गई हैं मेरी आंखें
उधड़न सिलते-सिलते मैं खुद फटती जा रही हूं
तलाश रही हूं तेरे भीतर वो दर्जी
जो कर दे रफ़ू रिश्ते के हर छेद को।