कब मांगा था मैंने तुमसे नौ लाख का हार,
एक छोटे से टीवी की बस थी मुझको दरकार।
कब कहती थी चांद-सितारे तोड़ के मांग सजाओ तुम,
यही कहा था मेरी खातिर एक टीवी ले आओ तुम।
मन ही मन तुम यही सोचते खुश रखता हूं बीवी को,
...मुझसे पूछो, तरस गई हूं एक छोटे से टीवी को।
तुमसे ज्यादा शाहरुख की यादों में खोई रहती हूं,
सुबह तलक अभिषेक के ही बिस्तर पर सोई रहती हूं।
मुझे पता है टीवी मेरे जीने का आधार नहीं,
पर समय से लड़ने को टीवी से, बड़ा कोई हथियार नहीं।
जब भी मन में दबे हुए भावों का ज्वार उमड़ता है,
तब होकर टीवी से प्रेरित आंखों के रस्ते गिरता है।
जब कभी जिंदगी की वीरानी मेरा उपहास उड़ाती है
तुम क्या जानो तब टीवी की, कितनी याद सताती है।
टीवी हंसता, हम हंसते हैं, वो रोता है हम रोते हैं
यही वजह है हर घर में, दो-चार तो टीवी होते हैं।
टीवी का नाटक जब जीवन के नाटक से जुड़ जाता है
दु:ख-सुख-चिंता फुर्र हो जाती, मन ही मन, मन मुस्काता है।
यूं तो बिसराने को हर गम, मैं ध्यान लगा लूं भगवन का
पर तीस बरस का काम नहीं, ये काम उमर जब पचपन का।
सो प्राणनाथ ये विनती है, ख्याल अगर है बीवी का,
टूटा-फूटा डिब्बा ला दो, जो दिखता हो बस टीवी सा...।
-प्रीति शर्मा
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