लो, अबकी फिर से भूल गए अपनी यादें साथ ले जाना
कितनी बार कहा था यादों का बैग छोड़ मत जाना
बहुत परेशान करती हैं मुझे पीछे से...
तितलियों की मानिंद सारा दिन उड़ती रहती है दिल के बागीचे में
जीवन-कुसुम पान करके फूलती जा रही हैं दिन-ब-दिन
हठी इतनी कि हर वक्त उनकी ही सुनो..
कुछ भी तो नहीं करने देती मेरे मन का सा।
सुबह होते ही बैठ जाती हैं मेरे सिराहने
भगाने पर घुस जाती हैं रजाई के भीतर
और गुदगुदाती हैं देर तक...
डंडा लेकर भगाती हूं तो छिप जाती हैं यहां-वहां
सोचती हूं चलो अब कुछ देर को तो शांति मिली
तभी पीछे से आकर धौला देती हंै, कहती हैं धप्पा।
अब तो डरती भी नहीं आंखें दिखाने पर
कुछ ज्यादा ही चढ़ गई हैं सिर
कल ही मेरे पैर के नीचे आते-आते रह गई वो याद
जब पहली बार रेस्टोरेंट में तुमने पकड़ा था मेरा हाथ
और कहा था, अच्छी लग रही हो...
अब बताओ कैसे संभालू यादों का ढेर
हर बार आते हो, दो-चार गट्ठर और बढ़ा जाते हो।
इस बार आओ तो बोर्डिंग का फॉर्म भी साथ लेते आना
यादों को कर देंगे एडमिट दो-चार साल के लिए....
या फिर बड़ा सा फ्रेम लेते आना
यादों की पेटिंग बनाकर टांग लेंगे उम्र की दीवार पर
अगर यह भी संभव न हो तो उन्हें बोरे में बंद करके
पटक देना टांड़ पर...
हर साल सफाई के दौरान बेच दिया करूंगी कबाड़ी को पुरानी यादें
अगर इतना भी न कर सको
तो चलना मेरे साथ सुनार के पास
कसौटी पर घिसकर बता देगा उनका मोल
सुनहरी यादों में लड़ी में पिरो बनवा लूंगी नगमाला
या फिर ऐसा करना
कुछ मत करना
वक्त के साथ ये खुद-ब-खुद मैच्योर हो जाएंगी
जब इन्हें भी किसी अपने की याद सताएगी
अभी हमारे सहने के दिन हैं, इनके खुश रहने के दिन हैं
इनकीं आंखों में सपने हैं, अरमान हैं, हमारी यादें अभी-अभी हुईं जवान हैं...।
3 comments:
वाह भई राजीव जी सुंदर रचना है
धन्यवाद काजल जी
कुछ अलग हट कर लिखी अच्छी लगी ....:))
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