नहीं पिया मुझको हक़ कोई
क्यों सोलह श्रंगार करू मैं
क्यों गजरा महकाऊँ
द्वार पे आहट सुनते ही क्योँ दौडी-दौडी आऊँ
तुझे न पाऊँ तो घबराऊँ
देख तुझे खिल जाऊं
भीतर झट से भाग आईना देख मैं शर्मा जाऊं,
पर, एक नज़र न देखा तुमने देर तलक मैं रोई
नहीं पिया मुझको हक़ कोई ......
कानों की बाली पूछ रही, गालों की लाली पूछ रही
पूछ rahi माथे की बिंदिया, बैनी काली पूछ रही,
चहक-चहक बतियाने वाली, क्योँ रहती खोयी-खोयी
नहीं पिया मुझको हक़ कोंई
आसान कितना होता है ख्वाबों में संसार बसाना
अपनी चूड़ी की खनखन में उसकी धड़कन का घुल मिल जाना
एक नज़र की खातिर जीना एक नज़र मर जाना
एक नज़र की चाहत में मैं सुबह तलक न सोयी
नहीं पिया मुझको हक़ कोंई............
4 comments:
अच्छा लिखा है।
टूटे दिल की पीड़ा बयां करती बेहद खूबसूरत रचना...बधाई.
नीरज
bhut sundar. likhte rhe.
बहुत उम्दा, लिखते रहें.
Post a Comment