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Sunday, July 27, 2008

नहीं पिया मुझको हक़ कोई

नहीं पिया मुझको हक़ कोई

क्यों सोलह श्रंगार करू मैं
क्यों गजरा महकाऊँ
द्वार पे आहट सुनते ही क्योँ दौडी-दौडी आऊँ
तुझे न पाऊँ तो घबराऊँ
देख तुझे खिल जाऊं
भीतर झट से भाग आईना देख मैं शर्मा जाऊं,
पर, एक नज़र न देखा तुमने देर तलक मैं रोई
नहीं पिया मुझको हक़ कोई ......
कानों की बाली पूछ रही, गालों की लाली पूछ रही
पूछ rahi माथे की बिंदिया, बैनी काली पूछ रही,
चहक-चहक बतियाने वाली, क्योँ रहती खोयी-खोयी
नहीं पिया मुझको हक़ कोंई
आसान कितना होता है ख्वाबों में संसार बसाना
अपनी चूड़ी की खनखन में उसकी धड़कन का घुल मिल जाना
एक नज़र की खातिर जीना एक नज़र मर जाना
एक नज़र की चाहत में मैं सुबह तलक न सोयी
नहीं पिया मुझको हक़ कोंई............

4 comments:

शोभा said...

अच्छा लिखा है।

नीरज गोस्वामी said...

टूटे दिल की पीड़ा बयां करती बेहद खूबसूरत रचना...बधाई.
नीरज

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sundar. likhte rhe.

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा, लिखते रहें.