जिनके कंधों पर सिर रखकर
वो फूट-फूट कर रोते हैं
रिश्तों के मारे कहते हैं
बस तकिए अपने होते हैं!
मन की गांठें धीरे-धीरे
तकिए पर जाकर खुलती हंै
बिन साबुन के सब पीड़ाएं
तकिए पर जाकर धुलती हैं
वो पीते अश्कों का प्याला
आंखें साकी हो जाती हैं
देकर तकिए को दर्द सभी
आंखें अक्सर सो जाती हैं
आंसू की गर्मी से पिघले
सुरमें की कालिख ढोते हैं
रिश्तों के...........
गम के मारों को तकिया
मनमीत सरीखा लगता है
मन के तारों को छू जाता
संगीत सरीखा लगता है
सट जाते हैं हट जाते हैं
चादर के संग बंट जाते हैं
रिश्तों की खींचातानी में
जिनके तकिए फट जाते हैं
उनके दुखड़ों पर जग हंसता
जब भी वो नयन भिगोते हैं
रिश्तों के.............
1 comment:
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति
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