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Wednesday, May 29, 2013

दारू के इक गिलास में



चांद भी महबूबा लगता है,
दारू के इक गिलास में
सारा जग डूबा लगता है
दारू के इक गिलास में।

पतझड़ भी सावन लगता है
दारू के इक गिलास में
नाला भी पावन लगता है
दारू के इक गिलास में।

होश-ओ-हवास में मुझको तू
बे-वफा दिखाई देता है,
खुदा सा तू सच्चा लगता है
दारू के इक गिलास में।

बात-बात पर जिद करता
आंखों में आंसू भर लाता,
दिल छोटा बच्चा लगता है
दारू के इक गिलास में।

दोस्त कंपनी देने से
दिन-रात लगें जब कतराने
तब ‘साला’ अच्छा लगता है
दारू के इक गिलास में।

7 comments:

पूरण खण्डेलवाल said...

सुन्दर रचना !!

KUMMAR GAURAV AJIITENDU said...

mere blog par aapka svagat hai. sadasya ke roop mein shamil hokar apna sneh avashy dein

Unknown said...


राजेंद्र जी, पूरण जी, कुमार गौरव जी आप सभी का ब्लॉग पर पधारने के लिए धन्यवाद....

हिन्दी के लिक्खाड़ said...

मुझे अभी-अभी जानकारी मिली है कि प्रिय प्रीति शर्मा की रचनाएं उनके पति राजीव शर्मा से भी बेहतर हैं। राजीव भाई, कृपा करके हमें उनकी रचनाओं का भी रसास्वादन करवाएं..आपके आभारी रहेंगे.. भानु प्रताप सिंह, पत्रकार, आगरा

Unknown said...

bhanu bhai aap es blog par jo bhi pad rhe hai wo sab priti ji ka hi leekha hua hai. ye blog to sirf ek madhyam bana huaa hai. es blog ko vhi dekhati hai. aap kavitao ka ras, shabdo ka spandan or kavitri ka marm mahsus kijiye....rachanakar ka naam aap khud samajh jayege kiyoki aap ptrakar hai or ham (priti/rajeev) rachanakar hai fir chahe wo rachana kavita ho samachar

dhanywad

Unknown said...


भानू भाई जब दो लोग एक हो जाते हैं तो पता नहीं लगता कि भाव कहां से उठे और उन्हें शब्द किसने दिए....कुछ ऐसा ही इस ब्लॉग के साथ है, इसलिए यहां प्रकाशित रचनाओं पर ध्यान दीजिए, रचनाकारों पर नहीं।

हिन्दी के लिक्खाड़ said...

राजीव भाई.. आपकी बात तो माननी पड़ेगी