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Tuesday, July 31, 2012

पेट्रोल डालकर मर भी नहीं सकते!!!


   

बेड़ा गर्क हो जाए पेट्रोल के दाम बढ़ाने वालों का। आजकल की बहुओं को जलकर मरना भी नसीब नहीं। ससुरा कैरोसीन तो घर में मिलता नहीं, सोचती थीं कि चलो...पेट्रोल तो है। जैसे ही सास ने सब्जी की बुराई की, तुरंत बाइक में से पेट्रोल निकालेंगी और.....दो-चार बूंद अपने ऊपर स्प्रे करके मरने का एक्ट करेंगी। लेकिन.....पेट्रोल के रेट रोज-रोज बढ़ने पर पतियों ने साफ इंस्ट्रक्शन दे दिए हैं, मरना है तो कोई दूसरा प्लान बनाओ...पेट्रोल इस तरह वेस्ट करने की जरूरत नहीं। बगल वाली रूबी का तो रो-रो कर हाल बेहाल है। कहती है कि आए दिन पति ताने देते रहते हैं,... ये पेट्रोल तुम दहेज में नहीं लेकर आई हो, जो इस तरह खर्च करती रहती हो....।
खैर....जीना-मरना तो तेल कंपनियों के हाथ में है। किसी दिन तो मॉडर्न बहुओं की पुकार उनके कानों में गूंजेगी और पेट्रोल के दाम घटेंगे। तब तक हम आपको पेट्रोल पर मिनी स्टोरी सुनाते हैं। एक बार की बात है।
वन्स अपॉॅन ए टाइम देयर वाज ए पेट्रोल नामक तरल पदार्थ। जिसे पीकर स्कूटर की टंकियां हमेशा छक्क रहती थीं। मरा...जिस दिन टैंक फुल कराते, उस दिन ओवर फ्लो जरूर होता था। घंटे भर तक स्कूटर को घिर्र-घिर्र करते रहते, तब कहीं जाकर वह स्टार्ट होता। (अब ओवर फ्लो की बात छोड़िए, मीटर की सुई हमेशा रिजर्व पर अटकी रहती है।)
दादी-बाबा बताते हैं कि पेट्रोल पंप पर अगर कोई व्यक्ति सौ-दो सौ रुपये का पेट्रोल डलवाता तो आसपास खड़े लोग उसे अंबानी परिवार का होने वाला दामाद वगैरा समझने लगते। वो दिन भी क्या दिन थे। शीतल पेय से सस्ता पेट्रोल था। घरवाली को घुमाओ या बाहरवाली को, पेट्रोल किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं डालता था। बारिश के नाम पर दो बूंद टपकते ही लोग लांग ड्राइव के लिए निकल पड़ते। (मिनी स्टोरी कम्प्लीट) पर अब.........क्या बताएं जनाब...। चार पहिए की गाड़ी जबसे ली है तब से आधी तनख्वाह पेट्रोल पी रही है। बच्चों से पहले ही तय कर लिया है कि या तो गाड़ी में घूम लो या फिर बाहर खाना खा लो। महीने में सिर्फ एक दिन आॅफिस गाड़ी ले जाता हूं। जब भी गेट खोलता हूं, गाड़ी मुझे ऐसी निकृष्ट निगाहों से देखती है मानो कहना चाह रही हो..... हे प्रभु मुझे इस गरीब के पल्ले ही बांधना था। ... काश मेरी चोरी हो जाए और ऐसा व्यक्ति मुझे चुराए जिसके पास पेट्रोल डलवाने के लिए पर्याप्त ऊपरी कमाई हो।... कहने को तो बहुत कुछ है। थोड़ा लिखे को बहुत जानना। चलते-चलते कबीरदास जी के दोहे का ‘पेट्रोल रूपांतरणत’-
जब पेट्रोल था तब गाड़ी नहीं, अब गाड़ी है पेट्रोल नाहि
यूं तो साइकिल घर में ठाड़ी है, पर स्टैंडर्ड देत घटाहि


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