जिंदगी- एक मुठ्ठी रेत
मुठ्ठी भींचकर सहेज कर रखी थी रेत
हाथ से छूट न जाए कहीं सोचकर यह
जितना समेटना चाहा उतना ही फिसलती गई,
जब हाथ खोला तो हथेली की रेखाओं में धूल के अवशेष शेष थे
जिन्हें फूंक से उड़ादेना ही श्रेयस्कर था ताकि
नई रेत से फ़िर मुठ्ठी भरी जा सके
और गुमा रहे की अभी मुठ्ठी भर रेत बाकी है.........